हमारी संकल्पना

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हमारी संकल्पना
श्रीविद्या एवं दश महाविद्या प्रचार-प्रसार एवं संबंधित विषय विविध जानकारी उपलब्ध कराना, उपासना हेतु उचित मार्गदर्शन करना, ज्योतिष विषयक् समाधान, योग्य आचार्यों की व्यवस्था प्रदान करवाना श्रीयन्त्र, पारद शिवलिंग, विविध रत्न-स्ट्राक्ष एवं मालायें जैसी सामग्री उपलब्ध कराना इत्यादि ।
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प्रातः स्मरणीय हिमालयस्य कायाकल्पी सन्त योगाधिराज ब्रह्मर्षि बर्फ़ानी दादाजी महराज विजयते

श्रीविद्या रहस्यम्

श्रीविद्या भगवती राजराजेश्वरी ललिता महात्रिपुरसुन्दरी शिवशक्त्यैक्यरूपिणी पराम्बा का स्मरण, मनन, कीर्तन एवं साधना का रहस्योद्घाटन श्रीविद्या तन्त्र-साधना का परम पाथेय है जो गुरु कृपा से प्राप्त होता है। साधक करुणामयी पराम्बा की साधना और उनकी कृपा प्राप्त कर लोकमंगल, राष्ट्रमंगल एवं विश्वमंगल की महती आवश्यकता की पूर्ति करे एवं ‘‘देशस्य राष्ट्रस्य कुलस्य राज्ञां करोतु शान्तिं भगवान कुलेशः’’ का कार्यरूप में परिणयन करे।

श्रीविद्या महाविद्या तथा ब्रह्ममयी है। ‘‘श्री’’ स्वयं ही महात्रिपुरसुन्दरी है। सम्प्रदाय एवं आम्नायनुसार इस विद्या के अनेक भेद हैं। दश महाविद्या में प्रथम तीन काली, तारा एवं षोडशी सर्वप्रमुख हैं और तीनो से ही नौ विद्यायें एवं एक पूरक विद्या मिलाकर दश महाविद्यायें होती हैं। मूल एक ही है जिससे तीन हुई और सर्वमूलभूत एक ही विद्या श्रीविद्या है। जहाँ भी तीनों रूपों का समन्वित रूप हो वह सभी परमार्थतया त्रिपुरा नाम से अन्वित हो जाता है। करुणामयी राजराजेश्वरी श्रीललिता महात्रिपुरसुन्दरी की आराधना-उपासना सभी के लिये कल्याणमयी है। आत्मस्वरूपिणी श्रीविद्या जब लीला से शरीर धारण करती हैं तब वेदशास्त्र उनका निरूपण करने लगते हैं। श्री विद्या की साधना-उपासना श्रीयन्त्र में की जाती है। श्रीयन्त्र की पूजा जीवन्मुक्तावस्था एवं शिवत्वभाव का अनुपमेय अमोघ साधन है। श्रीविद्या मन्त्र में समस्त मन्त्रों का एवं श्रीयन्त्र में समस्त यन्त्रों का समावेश है।

श्रीविद्या की उपासना एवं साधना का मार्ग श्रीगुरुरूपिणी शक्ति के अनुग्रह का अवलम्बन पाती है अतः पतन की आशंका सर्वथा निर्मूल रहती है। ‘‘स्वात्मैव ललिता प्रोक्ता, मनोज्ञ विश्व विग्रहा’’ अर्थात् अपनी आत्मा ही ललिता है। आत्मा को जितना ललित, जितना मनोज्ञ, जितना कोमल-सुन्दर गणित करेंगे उसी परिणाम में सत्ता का स्फुरण होगा।

‘श्री’’ हैं परमप्रकृतिस्वरूप आदिशक्ति और विद्या का अर्थ है ज्ञान। श्री शब्द वाच्य जो आदिशक्ति हैं, वही विद्या पद वाच्य ज्ञानस्वरूप ब्रह्म है क्योकि परब्रह्म और परमप्रकृति स्वरूप आदिशक्ति में भेद नहीं है। जो परमप्रकृति है वह परब्रह्म का ही स्वरूप है। इससे सि़द्ध होता है कि चैतन्य स्वरूप परब्रह्म परमात्मा से अभिन्न जो साक्षात परब्रह्मस्वरूपिणी चिन्मयी आदि प्रकृति हैं वही श्री हैं और यही मन्त्र वर्णात्मक देवतारूप में अभिव्यक्त हो ‘‘श्रीविद्या’’ नाम से उपास्य हैं। श्रीविद्या श्रीचक्र की अधिष्ठात्री श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी हैं इन्हीं को शास्त्रों में विद्या, महाविद्या आदि नाम से पुकारा गया है। जैसा कि "या देवी सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता...." जो देवी विद्या रूप में सब प्राणियों में अवस्थित हैं।

श्रीविद्या रहस्यों से भरपूर है और इस वेवसाईट पर श्रीविद्या विषयक् विविध जानकारीयों की उपलब्धता के साथ ही श्रेष्ठ श्रीयन्त्र की प्राप्ति को सुलभ बनाने का प्रयास किया गया है। विस्तार से जानने के लिये प्रत्येक पेज का अवलोकन कर सकते हैं।

.......धर्मभूषण डॉ. पं. श्रीधर गौरहा , बिलासपुर , छत्तीसगढ़ , भारत।

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