श्रीविद्या भगवती राजराजेश्वरी ललिता महात्रिपुरसुन्दरी शिवशक्त्यैक्यरूपिणी पराम्बा का स्मरण, मनन, कीर्तन एवं साधना का रहस्योद्घाटन श्रीविद्या तन्त्र-साधना का परम पाथेय है जो गुरु कृपा से प्राप्त होता है। साधक करुणामयी पराम्बा की साधना और उनकी कृपा प्राप्त कर लोकमंगल, राष्ट्रमंगल एवं विश्वमंगल की महती आवश्यकता की पूर्ति करे एवं ‘‘देशस्य राष्ट्रस्य कुलस्य राज्ञां करोतु शान्तिं भगवान कुलेशः’’ का कार्यरूप में परिणयन करे।
श्रीविद्या महाविद्या तथा ब्रह्ममयी है। ‘‘श्री’’ स्वयं ही महात्रिपुरसुन्दरी हैं। सम्प्रदाय एवं आम्नायनुसार इस विद्या के अनेक भेद हैं। दश महाविद्या में प्रथम तीन काली, तारा एवं षोडशी सर्वप्रमुख हैं और तीनो से ही नौ विद्यायें एवं एक पूरक विद्या मिलाकर दश महाविद्यायें होती हैं। मूल एक ही है जिससे तीन हुई और सर्वमूलभूत एक ही विद्या श्रीविद्या है।जहाँ भी तीनों रूपों का समन्वित रूप हो वह सभी परमार्थतया त्रिपुरा नाम से अन्वित हो जाता है। करुणामयी राजराजेश्वरी श्रीललिता महात्रिपुरसुन्दरी की आराधना-उपासना सभी के लिये कल्याणमयी है। आत्मस्वरूपिणी श्रीविद्या जब लीला से शरीर धारण करती हैं तब वेदशास्त्र उनका निरूपण करने लगते हैं। श्री विद्या की साधना-उपासना श्रीयन्त्र में की जाती है। श्रीयन्त्र की पूजा जीवन्मुक्तावस्था एवं शिवत्वभाव का अनुपमेय अमोघ साधन है। श्रीविद्या मन्त्र में समस्त मन्त्रों का एवं श्रीयन्त्र में समस्त यन्त्रों का समावेश है।
श्रीविद्या की उपासना एवं साधना का मार्ग श्रीगुरुरूपिणी शक्ति के अनुग्रह का अवलम्बन पाती है अतः पतन की आशंका सर्वथा निर्मूल रहती है। ‘‘स्वात्मैव ललिता प्रोक्ता, मनोज्ञ विश्व विग्रहा’’ अर्थात् अपनी आत्मा ही ललिता है। आत्मा को जितना ललित, जितना मनोज्ञ, जितना कोमल-सुन्दर गणित करेंगे उसी परिणाम में सत्ता का स्फुरण होगा।
‘‘श्री’’ हैं परमपप्रकृतिस्वरूप आदिशक्ति और विद्या का अर्थ है ज्ञान। श्री शब्द वाच्य जो आदिशक्ति हैं, वही विद्या पद वाच्य ज्ञानस्वरूप ब्रह्म है क्योकि परब्रह्म और परमपप्रकृति स्वरूप आदिशक्ति में भेद नहीं है। जो परमपप्रकृति है वह परब्रह्म का ही स्वरूप है। इससे सि़द्ध होता है कि चैतन्य स्वरूप परब्रह्म परमात्मा से अभिन्न जो साक्षात परब्रह्मस्वरूपिणी चिन्मयी आदि पप्रकृति हैं वही श्री हैं और यही मन्त्र वर्णात्मक देवतारूप में अभिव्यक्त हो ‘‘श्रीविद्या’’ नाम से उपास्य हैं। श्रीविद्या श्रीचक्र की अधिष्ठात्री श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी हैं इन्हीं को शास्त्रों में विद्या, महाविद्या आदि नाम से पुकारा गया है। जैसा कि ‘‘या देवी सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता....’’ जो देवी विद्या रूप में सब प्राणियों में अवस्थित हैं।
श्रीविद्या रहस्यों से भरपूर है और इस वेवसाईट पर श्रीविद्या विषयक् विविध जानकारीयों की उपलब्धता के साथ ही श्रेष्ठ श्रीयन्त्र की प्राप्ति को सुलभ बनाने का प्रयास किया गया है। विस्तार से जानने के लिये प्रत्येक पेज का अवलोकन कर सकते हैं। यथानुसार दिये दूरभाष नम्बरों पर सम्पर्क कर सकते हैं।.......
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शकाली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी, भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा।
बगला सिद्धिविद्या च मातंगी कमलात्मिका, एतादश महाविद्याः सिद्धिविद्याः प्रकीर्तिता।।
दश महाविद्या में आठवीं सिद्धविद्या बगला, श्रीकुल की हैं और इन्हे ही पीताम्बरादेवी, ब्रह्मास्त्रविद्या, ब्रम्हास्त्रस्तम्भिनी, स्तब्धमाया, प्रवृृत्तिरोधिनी, मन्त्रजीवन विद्या, प्राणि-प्रज्ञा-प्रहारिका, षट्कर्माधार विद्या आदि भी कहा जाता है। यह विद्या गोपनीय एवं परम पवित्र है। भाषा प्रभाव से इन्हे बगुला, बगला, वगुला, वल्गा, वगलामुखी या बगलामुखी कहा जाता है। वैसे वल्गा का तात्पर्य है- अंकुश लगाना। ये श्रीविद्या की नियंत्रण करने वाली शक्ति हैं। बगलामुखी स्तम्भन शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं। शास्त्र में उल्लेख है कि भगवान शंकर ने देवी पार्वती को इनके आविर्भाव के कथा के विषय में बताया कि कृतयुग में सम्पूर्ण जगत को नष्ट करने वाला तूफान आया। प्राणियो पर संकट आया देख पालनहार श्रीविष्णु चिन्तित हो गये और उन्होने सौराष्ट्र में हरिद्रा सरोवर के समीप तपस्याकर भगवती महात्रिपुरसुन्दरी को प्रसन्न किया। श्रीविद्या ने सरोवर से प्रकट होकर पीताम्बरा के रूप में उन्हे दर्शन दिया और बढ़ते हुये जलवेग तथा उत्पात का स्तम्भन किया। श्रीविद्याा की यही शक्ति वलगा, नियंत्रण करने वाली महाशक्ति हैं। पीताम्बरा परमेश्वर की सहायिका हैं और वाणी, विद्या और गति को अनुशासित करती है। ये शक्ति उपासको की वान्छाकल्पतरू हैं। दुरूह अरिष्टों एवं श़त्रुओं के दमन में इनके समकक्ष अन्य कोई विद्या नहीं है।
श्री बगला की साधना श्रीप्रजापति ने किया और इसका उपदेश सनकादि मुनियों को किया। सनत्कुमार ने श्रीनारद को, श्रीनारद ने सांख्यायन नामक परमहंस को बताया। सांख्यायन ने 36 पटलों में उपनिबद्ध कर वगलातऩ्त्र की रचना की। दूसरे उपासक श्रीविष्णु, तीसरे भगवान शिव हुये। श्रीशिव ने जमदग्नि ऋषि के पुत्र श्रीपरशुराम को ब्रह्मास्त्रविद्या प्रदान की। परशुराम ने द्रोणाचार्य को, द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र अश्वत्थामा को यह विद्या प्रदान किया। परशुराम से यह विद्या छल से कर्ण ने भी प्राप्त किया था। इनके अलावा महर्षि च्यवन, अश्विनीकुमार, हनुमान, अंगद, लक्ष्मण, योगेश्वर श्रीकृष्ण, आदिशंकराचार्य, महामुनि निम्बार्क, कपिल मुनि आदि का नाम विविध धर्मग्रन्थों में बगलामुखी के सि़द्ध उपासकों के रूप में लिया गया है। श्रीपीताम्बरा की उपासना गुरुसानिध्य में रहकर सतर्कतापूर्वक, इन्द्रियनिग्रहपूर्वक सफलता प्राप्ति होने तक प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये। री बगला की साधना श्रीप्रजापति ने किया और इसका उपदेश सनकादि मुनियों को किया। सनत्कुमार ने श्रीनारद को, श्रीनारद ने सांख्यायन नामक परमहंस को बताया। सांख्यायन ने 36 पटलों में उपनिबद्ध कर वगलातऩ्त्र की रचना की। दूसरे उपासक श्रीविष्णु, तीसरे भगवान शिव हुये। श्रीशिव ने जमदग्नि ऋषि के पुत्र श्रीपरशुराम को ब्रह्मास्त्रविद्या प्रदान की। परशुराम ने द्रोणाचार्य को, द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र अश्वत्थामा को यह विद्या प्रदान किया। परशुराम से यह विद्या छल से कर्ण ने भी प्राप्त किया था। इनके अलावा महर्षि च्यवन, अश्विनीकुमार, हनुमान, अंगद, लक्ष्मण, योगेश्वर श्रीकृष्ण, आदिशंकराचार्य, महामुनि निम्बार्क, कपिल मुनि आदि का नाम विविध धर्मग्रन्थों में बगलामुखी के सि़द्ध उपासकों के रूप में लिया गया है। श्रीपीताम्बरा की उपासना गुरुसानिध्य में रहकर सतर्कतापूर्वक, इन्द्रियनिग्रहपूर्वक सफलता प्राप्ति होने तक प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये। भगवती पीताम्बरातन्त्रम् की उपासना अन्तर्गत षटकर्म क्रिया स्तम्भन, वशीकरण, आकर्षण, विद्वेषण, उच्चाटन एवं मारण कर्म आते है। बाह्यशत्रु-विरोधियों पर विजय पाने के लिये अन्यान्य प्रयोग इसमें निहित हैं परन्तु मेरा यह मानना है कि बाह्य शत्रुओं की अपेक्षा अपने आन्तरिक शत्रुओं पर विजय पाना दुष्कर कार्य है। यदि मातृभाव से भगवती पीताम्बरा की शरणागति प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ किया जाए तो भगवती स्वमेव योगक्षेम वहाम्य करती हैं। दैनिक आचार-विचार, व्यवहार एवं साधना-पथ में मद, मोह, अहंकार, लोभ, क्रोध आदि ऐसे प्रबल शत्रु हैं जिन पर विजय पाने के लिये भगवती की कृपा अवश्यम्भावी है। प्रयोग विद्याओं का उद्देश्य सर्वथा लोक कल्याणकारी होना चाहिए। स्वार्थ प्रेरित प्रयोग से साधक का पतन निश्चित है अतः अपनी गुरुपरम्परा का भक्ति एवं समर्पित भाव से परिपालन करते हुये एवं मातृभाव का आश्रय लेते हुये अर्चना-उपासना करने से परमकल्याणकारी मार्ग प्रशस्त होगा- इसमें सन्देह नहीं। महाविद्याओं की बहिर्यागपूजा कर्मकाण्डरूपी उपासना का स्थूल अंग है और पूजन प्रक्रिया लगभग एक जैसे ही हैं। यन्त्रों एवं मूलमन्त्रों में भिन्नता होने के कारण आवरणार्चन तथा न्यासप्रक्रियायें पृथक-पृथक होती हैं। साधना का परम लक्ष्य तो अन्तर्याग साधना है जिसमें बगैर गुरुकृपा के सामथ्र्य पाना असम्भव है। इस पीताम्बरातन्त्रम् से आप सभी लाभान्वित हो सकेंगे, ऐसा विश्वास है। जगज्जननी माँ से सभी के कल्याण की कामना करता हूँ।
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Buy Nowसत्य अद्वैत है किन्तु द्वैत के विशाल अनुभव के द्वारा ही मनुष्य को आखिर अद्वैत की उच्चतम चेतना में पहुँचाना है। वहाँ पहुंचने की प्रक्रिया में गुरु के चरणकमलों के प्रति भक्तिभाव सबसे महत्वपूर्ण है और यह एक श्रेष्ठ साधना है। जीवन का हर एक अनुभव गुरु के प्रति आपकी श्रद्धा की कसौटी है। अपने सद्गुरु की चेतना का सन्स्पर्श एवं गुरुतत्व का बोध पाने हेतु योग्य शिष्य सदैव प्रयत्नशील रहता है। सनातन संस्कृति में अनादि काल से अध्यात्मिक साधना पद्धति के साथ-साथ परम्परागत व्यवहार जगत में गुरु का विशिष्ट स्थान है। जिस प्रकार सभी नदियाँ सागर की ओर जाती हैं उसी प्रकार सभी साधनायें ईश्वर की ओर जाती हैं। ईश्वर की साधना देवी, देवता के रुप में करें या ईष्ट के रुप में या गुरु के रूप में, सभी ईश्वर की तरफ ही जाती हैं। गुरुकृपा प्रसाद रूप में प्राप्त विवेक-दृष्टि लेकर ही शिष्य को उपासना द्वार में प्रवेश मिलता है। सद्गुरु मर्मज्ञ, जितेन्द्रिय,समदर्शी एवं आत्मज्ञानी होता है, वे परमात्मा के मर्मों को तथा शिष्य के अन्तःकरण को भलीभांति जानते हैं। सम्पूर्ण विश्व में अपने विशिष्ट दर्शन से विश्वगुरु पद पर आसीन हमारे भारतीय दर्शन में सद्गुरु को मनुष्य नहीं माना गया है। जैसे गाय को पशु, तुलसी को पेड़़पौधा, गंगा को नदी आदि नहीं माना गया है। भारत की यही विशिष्ट विचारधारा को पीकर के बनता है, भारतीय जीवन। गुरु माहात्म्य का श्रवण, मनन या बोध सभी नियमों, व्रतों से उत्कृष्ट बताया गया है। ऐसे ब्रह्मदर्शी गुरु का आश्रय भी परम सौभाग्य से मिलता है। ईश्वर की कृपा ही गुरु का रूप लेती है। साधना का रहस्यमय मार्ग श्रीगुरु कृपा से उपलब्ध होता है। सांसारिक मनोवृत्तिवाले लोगों की सेवा करेंगे तो सांसारिक लोगों के गुण प्राप्त होंगे उससे विपरीत जो सदैव परमसुख में निमग्न रहते हैं, जो गुणों की धाम एवं प्रेमस्वरूप हैं ऐसे गुरु की सेवा से उनके गुण प्राप्त होते हैं।
सभी उपासनाओं एवं साधनाओं के पूजाविधान का विविध ग्रन्थों में उल्लेख है। श्रीगुरुपूजा की शास्त्र-परम्परा का बोध कई शिष्य एवं जिज्ञासुओं को उपलब्ध नही होता। ऐसा देखने भी आता है कि भाव प्रधान होकर भी कई लोग पूजा विधि, सामग्री आदि के साथ गुरु की पूजा करने को तत्पर रहते हैं परन्तु उन्हे गुरु की प्रसन्नता प्राप्त नहीं हो पाती। ‘‘तस्मै श्रीगुरवे नमः’’ नामक पुस्तक में श्रीगुरु की वैदिक एवं तान्त्रिक पूजा विधान को क्रमबद्ध रूप में दर्शाया गया है साथ ही श्रीगुरुगीता, भावार्थ सहित वैदिक सूक्तियाँ एवं अन्य कई महत्त्वपूर्ण श्लोक एवं पूजा-विधान को समाहित किया गया है जो जिज्ञासुओं एवं उपासना-साधना में रत लोगों के लिये लाभकारी है। इस पुस्तक को संपादक-संकलक धर्मभूषण पं. श्रीधर गौरहा ने अपने सद्गुरुदेव परमाराध्य योगाधिराज ब्रह्मर्षि बर्फानीदादाजी महाराज को समर्पित किया है। इसमें संकलित सामग्री अनुकरणीय एवं साधना सहायक है।
भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरंगैः स्तुष्टुवासंस्तनूभिव्र्यशेम देवहितं यदायुः।।
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Buy Nowश्रीविद्या भगवती राजराजेश्वरी ललिता महात्रिपुरसुन्दरी शिवशक्त्यैक्यरूपिणी पराम्बा का स्मरण, मनन, कीर्तन एवं साधना का रहस्योद्घाटन श्रीविद्या तन्त्र-साधना का परम पाथेय है जो गुरु कृपा से प्राप्त होता है। साधक करुणामयी पराम्बा की साधना और उनकी कृपा प्राप्त कर लोकमंगल, राष्ट्रमंगल एवं विश्वमंगल की महती आवश्यकता की पूर्ति करे एवं ‘‘देशस्य राष्ट्रस्य कुलस्य राज्ञां करोतु शान्तिं भगवान कुलेशः’’ का कार्यरूप में परिणयन करे।
श्रीविद्या महाविद्या तथा ब्रह्ममयी है। ‘‘श्री’’ स्वयं ही महात्रिपुरसुन्दरी हैं। सम्प्रदाय एवं आम्नायनुसार इस विद्या के अनेक भेद हैं। दश महाविद्या में प्रथम तीन काली, तारा एवं षोडशी सर्वप्रमुख हैं और तीनो से ही नौ विद्यायें एवं एक पूरक विद्या मिलाकर दश महाविद्यायें होती हैं। मूल एक ही है जिससे तीन हुई और सर्वमूलभूत एक ही विद्या श्रीविद्या है।जहाँ भी तीनों रूपों का समन्वित रूप हो वह सभी परमार्थतया त्रिपुरा नाम से अन्वित हो जाता है। करुणामयी राजराजेश्वरी श्रीललिता महात्रिपुरसुन्दरी की आराधना-उपासना सभी के लिये कल्याणमयी है। आत्मस्वरूपिणी श्रीविद्या जब लीला से शरीर धारण करती हैं तब वेदशास्त्र उनका निरूपण करने लगते हैं। श्री विद्या की साधना-उपासना श्रीयन्त्र में की जाती है। श्रीयन्त्र की पूजा जीवन्मुक्तावस्था एवं शिवत्वभाव का अनुपमेय अमोघ साधन है। श्रीविद्या मन्त्र में समस्त मन्त्रों का एवं श्रीयन्त्र में समस्त यन्त्रों का समावेश है।
श्रीविद्या की उपासना एवं साधना का मार्ग श्रीगुरुरूपिणी शक्ति के अनुग्रह का अवलम्बन पाती है अतः पतन की आशंका सर्वथा निर्मूल रहती है। ‘‘स्वात्मैव ललिता प्रोक्ता, मनोज्ञ विश्व विग्रहा’’ अर्थात् अपनी आत्मा ही ललिता है। आत्मा को जितना ललित, जितना मनोज्ञ, जितना कोमल-सुन्दर गणित करेंगे उसी परिणाम में सत्ता का स्फुरण होगा।
‘‘श्री’’ हैं परमपप्रकृतिस्वरूप आदिशक्ति और विद्या का अर्थ है ज्ञान। श्री शब्द वाच्य जो आदिशक्ति हैं, वही विद्या पद वाच्य ज्ञानस्वरूप ब्रह्म है क्योकि परब्रह्म और परमपप्रकृति स्वरूप आदिशक्ति में भेद नहीं है। जो परमपप्रकृति है वह परब्रह्म का ही स्वरूप है। इससे सि़द्ध होता है कि चैतन्य स्वरूप परब्रह्म परमात्मा से अभिन्न जो साक्षात परब्रह्मस्वरूपिणी चिन्मयी आदि पप्रकृति हैं वही श्री हैं और यही मन्त्र वर्णात्मक देवतारूप में अभिव्यक्त हो ‘‘श्रीविद्या’’ नाम से उपास्य हैं। श्रीविद्या श्रीचक्र की अधिष्ठात्री श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी हैं इन्हीं को शास्त्रों में विद्या, महाविद्या आदि नाम से पुकारा गया है। जैसा कि ‘‘या देवी सर्वभूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता....’’ जो देवी विद्या रूप में सब प्राणियों में अवस्थित हैं।
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निर्मित शिवलिंग स्वच्छ एवं चमकदार स्वरुप में होगा।
इसे गिरने से बचाना होगा। असावधानीवश गिर जाने से यह टूट सकता है।
एल्यूमिनियम से इसे दूर रखना होगा।
जलहरी की व्यवस्था साईज अनुसार स्वयं करनी होगी। इस हेतु पीतल का, चांदी का अथवा संगमरमर की जलहरी उपयोग कर सकते हैं। चूंकि इसकी उपरी सतह कठोर एवं चमकदार होगी अतः यह स्वर्ण से सामान्यतः प्रतिक्रिया नहीं करेगा फिर भी चूंकि स्वर्ण एवं पारा आपस में संवेदनशील हैं अतः स्वर्ण की जलहरी अनुशंसित नहीं है।
पारद शिवलिंग के बाहरी सतह को किसी घर्षण/रगड़ से सुरक्षित रखें।
पारद शिवलिंग की सफाई सामान्य सूती कपड़े, नींबू अथवा कोलगेट टूथपावडर से भी कर सकतें हैं जिससे इसकी चमक ज्यादा समय तक स्थिर रह सकती है। सावधानीपूर्वक सुती कपड़े से थोड़ी देर तक रगड़ने पर चमक बढ़ जायेगी। मौसम की आर्द्रता के कारण उसकी चमक पर असर पड़ता है ऐसी स्थिति में स्वयं स्वच्छ कर सकते हैं।
पारा से निर्मित शिवलिंग में पारा छोड़कर अन्य कोई भी धातु अथवा केमिकल मिश्रित नहीं है और यह अष्टसंस्कार से शोधित है। अतः इसकी विश्वसनीयता है।
पारद शिवलिंग को सुरक्षित पैक में स्पीड पोस्ट अथवा रजिस्टर्ड पार्सल से प्रेषित किया जायेगा जिसका पोस्टल चार्ज अलग से देय है जो कि वजन अनुसार निर्धारित होगा।
सामान्यतः बाजारों में उपलब्ध पारद शिवलिंग पूरी तरह पारा से निर्मित नहीं रहता अतः यदि आप बाजार के पारद शिवलिंग को किसी कागज पर हल्का सा भी रगड़ेंगे तो कागज पर निशान पड़ जाता है जो कि नहीं पड़ना चाहिये। यहां उपलब्ध एवं निर्मित पारद शिवलिंग में यह दोष नहीं मिलेगा। इससे अधिक वजन का आर्डर पर तैयार किया जा सकता है।
पारद निर्मित इस शिवलिंग पर ध्यान अथवा त्राटक करने से बहुत शीघ्र लाभ अनुभव कर सकते हैं। इस पारद शिवलिंग पर अभिषेककर्म अथवा पूजन सामग्री चढाने को हम अनुशंषित नहीं करते क्योंकि ऐसा करने पर पारे की चमक पर दुष्प्रभाव पड़ सकता है अतः स्वच्छतापूर्वक रखते हुए इस पर ध्यानादि कार्य संपादित करेंगे तो बेहतर होगा।
Price : ₹ 45.00 (per gram) (Available in 100g, 200g, 300g and 500g)
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