तस्मै श्रीगुरवे नमः

तस्मै श्रीगुरवे नमः

सत्य अद्वैत है किन्तु द्वैत के विशाल अनुभव के द्वारा ही मनुष्य को आखिर अद्वैत की उच्चतम चेतना में पहुॅंचना है। वहाॅं पहुॅंचने की प्रक्रिया में गुरु के चरणकमलों के प्रति भक्तिभाव सबसे महत्वपूर्ण है और यह एक श्रेष्ठ साधना है। जीवन का हर एक अनुभव गुरु के प्रति आपकी श्रद्धा की कसौटी है। अपने सद््गुरु की चेतना का सन्स्पर्श एवं गुरुतत्व का बोध पाने हेतु योग्य शिष्य सदैव प्रयत्नशील रहता है। सनातन संस्कृृति में अनादि काल से अध्यात्मिक साधना पद्धति के साथ-साथ परम्परागत व्यवहार जगत में गुरु का विशिष्ट स्थान हैै। जिस प्रकार सभी नदियाॅं सागर की ओर जाती हैं उसी प्रकार सभी साधनायें ईश्वर की ओर जाती हैं। ईश्वर की साधना देवी, देवता के रुप में करें या ईष्ट के रुप में या गुरु के रूप में, सभी ईश्वर की तरफ ही जाती हैं। गुरुकृृपा प्रसाद रूप में प्राप्त विवेक-दृृृष्टि लेकर ही शिष्य को उपासना द्वार में प्रवेश मिलता है। सद््गुरु मर्मज्ञ, जितेन्द्रिय,समदर्शी एवं आत्मज्ञानी होता है, वेे परमात्मा के मर्मों को तथा शिष्य के अन्तःकरण को भलीभाॅंति जानते हैं। सम्पूर्ण विश्व में अपने विशिष्ट दर्शन से विश्वगुरु पद पर आसीन हमारे भारतीय दर्शन में सद्गुरु को मनुष्य नहीं माना गया है। जैसे गाय को पशु, तुलसी को पेड़़पौधा, गंगा को नदी आदि नहीं माना गया है। भारत की यही विशिष्ट विचारधारा को पीकर के बनता है, भारतीय जीवन। गुरु माहात्म्य का श्रवण, मनन या बोध सभी नियमों, व्रतों से उत्कृृष्ट बताया गया है। ऐसे ब्रह््मदर्शी गुरु का आश्रय भी परम सौभाग्य से मिलता है। ईश्वर की कृृपा ही गुरु का रूप लेती है। साधना का रहस्यमय मार्ग श्रीगुरु कृृपा से उपलब्ध होता है। सांसारिक मनोवृृत्तिवाले लोगों की सेवा करेंगे तो सांसारिक लोगों के गुण प्राप्त होंगे उससे विपरीत जो सदैव परमसुख में निमग्न रहते हैं, जो गुणों की धाम एवं प्रेमस्वरूप हैं ऐसे गुरु की सेवा से उनके गुण प्राप्त होते हैं।


सभी उपासनाओं एवं साधनाओं के पूजाविधान का विविध ग्रन्थों में उल्लेख है। श्रीगुरुपूजा की शास्त्र-परम्परा का बोध कई शिष्य एवं जिज्ञासुओं को उपलब्ध नही होता। ऐसा देखने भी आता है कि भाव प्रधान होकर भी कई लोग पूजा विधि, सामग्री आदि के साथ गुरु की पूजा करने को तत्पर रहते हैं परन्तु उन्हे गुरु की प्रसन्नता प्राप्त नहीं हो पाती। ‘‘तस्मै श्रीगुरवे नमः’’ नामक पुस्तक में श्रीगुरु की वैदिक एवं तान्त्रिक पूजा विधान को क्रमबद्ध रूप में दर्शाया गया है साथ ही श्रीगुरुगीता, भावार्थ सहित वैदिक सूक्तियाॅं एवं अन्य कई महत्त्वपूर्ण श्लोक एवं पूजा-विधान को समाहित किया गया है जो जिज्ञासुओं एवं उपासना-साधना में रत लोगों के लिये लाभकारी है। इस पुस्तक को संपादक-संकलक धर्मभूषण पं. श्रीधर गौरहा ने अपने सद््गुरुदेव परमाराध्य योगाधिराज ब्रह््मर्षि बर्फानीदादाजी महाराज को समर्पित किया है। इसमें संकलित सामग्री अनुकरणीय एवं साधना सहायक है।



भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरंगैः स्तुष्टुवासंस्तनूभिव्र्यशेम देवहितं यदायुः।।



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